करीब चार दशकों की सरकारी मुलाजमत में नाइक ने जो कुछ किया, वह उनके दायित्व का हिस्सा था, लेकिन रिटायर होने के बाद उन्होंने जो किया है, उसके लिए इंसानियत उनकी हमेशा कर्जदार रहेगी। बीते 21 वर्षों में उन्होंने करीब एक लाख बच्चों को स्कॉलरशिप दिलाई है।
उम्र के एक खास मोड़ पर पहुंचते ही नियमों से बंधी हमारी सरकारें और नियोक्ता संस्थाएं हर किसी को अवकाशपत्र थमा देती हैं, पर उस पड़ाव के आगे भी जीवन का सफर जारी रहता है। अनगिनत लोग उसके बाद भी पूरी ऊर्जा के साथ सक्रिय रहते हैं, बल्कि उनकी जिंदगी देश और समाज के लिए एक मिसाल बन जाती है। कर्नाटक के 80 वर्षीय के नारायण नाइक का जीवन उन तमाम लोगों के लिए एक ‘लैंपपोस्ट’ है, जो रिटायरमेंट के बाद समाज और मानवता की सेवा में सार्थकता तलाशना चाहते हैं।
देश तब आजाद नहीं हुआ था, और न ही जमींदारी-प्रथा से मुक्ति मिली थी। सीमांत किसान इस प्रथा के सबसे ज्यादा शिकार थे। उसी माहौल में दक्षिण कन्नड़ जिले के बंटवाल तालुके में एक गरीब किसान परिवार में नाइक पैदा हुए। खेती-किसानी से परिवार के गुजारे का आलम यह रहा कि एक सुबह पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले होनहार बेटे से यह कहते हुए पिता की आवाज लरज उठी थी- ‘मैं तुम्हें अब और नहीं पढ़ा सकता।’ नाइक को कहां मालूम था कि इन शब्दों तक पहुंचने से पहले पिता ने खुद के साथ कितना संघर्ष किया है? नाइक ने तो बस ‘बापू गांधी’ के रास्ते के बारे में सुन रखा था कि अपनी बात मनवाने के लिए सत्याग्रह करो। वहभी भूख-हड़ताल पर बैठ गए। अब बाल-हठ के आगे कोई पिता कहां तक निर्मोही रह पाता? वह भी तब, जब जिद आगे पढ़ने की हो। पिता ने अपनी कमर व बाजुओं से हिम्मत मांगी और बेटे को फिर से स्कूल जाने की अनुमति दे दी।
तीन साल बाद एक बार फिर नाइक के आगे वही आर्थिक विवशता आ खड़ी हुई, और इस बार भी उन्होंने वही बापू का रास्ता अपनाया और फतह हासिल की। आज की पीढ़ी के लिए उस संघर्ष को समझना शायद मुश्किल हो, क्योंकि अब तो ज्यादातर गांवों में प्राइमरी स्कूल और परिवहन के बेहतर साधनों की पहुंच बन चुकी है, पर नाइक करीब 16 किलोमीटर रोज नंगे पांव चलते रहे, ताकि शिक्षा हासिल करने का सिलसिला टूटने न पाए। कन्नड़ और हिंदी में बीएड व एमए की डिग्री हासिल करने वाले नाइक ने 20 वर्ष की उम्र में बतौर प्राथमिक शिक्षक शिक्षण की दुनिया में कदम रखा।
निजी जीवन के कटु अनुभवों ने छोटी अवस्था में ही नाइक को गहरे एहसास करा दिया था कि आर्थिक संसाधनों की कमी समाज के कितने नौनिहालों से उनके सपने छीन रही है। इसलिए बच्चों को ईमानदारी से पढ़ाने के अलावा वह अभिभावकों को प्रेरित करते रहते थे कि आप सब अपनी जिंदगी में जो कष्ट उठा रहे हैं, उन तकलीफों से अपनी संतानों को बचा सकते हैं, इसलिए उन्हें स्कूल जरूर भेजें। इस पेशे से गहरे लगाव ने नाइक के करियर को ऊंचा उठाया और कुछ वर्षों के बाद वह हाईस्कूल के शिक्षक बनाए गए, आगे चलकर उन्होंने स्कूल इंस्पेक्टर का भी दायित्व निभाया।
बतौर स्कूल इंस्पेक्टर नारायण नाइक के आगे एक ऐसा क्षितिज खुला, जो हजारों बच्चों की जिंदगी संवारने में सक्षम था, और वह आकाश था ‘छात्रवृत्ति’ का! हमारे देश में केंद्र और राज्य सरकारें ही नहीं, अनेक निजी संगठन भी तरह-तरह के वजीफे देते हैं, लेकिन गरीब बच्चों या उनके अभिभावकों को इनके बारे में पता ही नहीं होता। नाइक ने इन ‘स्कॉलरशिप’ के सदुपयोग से जरूरतमंद बच्चों की सहायता करने की ठान ली। वह जब भी स्कूलों के दौरे पर होते, और किसी निर्धन बच्चे के बारे में पता चलता, तो बिना किसी प्रचार के स्कूल प्रशासन के साथ मिलकर किसी न किसी स्कॉलरशिप योजना के तहत उस बच्चे की स्कूली शिक्षा मुकम्मल कराने की व्यवस्था कर देते। इतना ही नहीं, नाइक दिहाड़ी मजदूरों की बस्तियों में जाकर उन्हें प्रेरित किया करते कि वे श्रम-कल्याण विभाग में जाकर अपना पंजीकरण कराएं, ताकि उनके बच्चों को सरकारी वजीफों व रियायतों का लाभ मिल सके।
करीब चार दशकों की सरकारी मुलाजमत के दौरान एक शिक्षक व प्रशासक के रूप में नाइक ने जो कुछ किया, वह उनके दायित्व का हिस्सा था, लेकिन साल 2001 में रिटायर होने के बाद उन्होंने जो किया है, उसके लिए इंसानियत उनकी हमेशा कर्जदार रहेगी। वह चाहते, तो अपने नाती-नातिन के साथ सुखमय जीवन बिता सकते थे। लेकिन उन्होंने अपने भीतर पांचवीं और आठवीं कक्षा के नाइक को हमेशा जागृत रखा। इसीलिए रिटायरमेंट के बाद भी वह जरूरतमंद बच्चों की मदद के लिए तत्पर रहे। अपनी 25,000 रुपये की पेंशन की ज्यादातर राशि वे ऐसे ही बच्चों की मदद में बांटते रहे। हालांकि, ज्यादातर बच्चे रकम लौटा देते, मगर कुछ राशि नहीं भी मिलती। नाइक को कभी इसका मलाल नहीं हुआ।
पिछले चार वर्षों में ही उन्होंने दक्षिण कन्नड़ और उडुपी जिले के लगभग 870 शिक्षण संस्थानों का दौरा किया, ताकि वह उन सैकड़ों बच्चों को स्कॉलरशिप दिला सकें, जिन्हें इसकी बहुत जरूरत है। नाइक न सिर्फ उनके फॉर्म भरते हैं, बल्कि कई बार उचित अधिकारी तक खुद उनके आवेदन भी पहुंचा देते हैं। बीते 21 वर्षों में उन्होंने करीब एक लाख बच्चों को पांच करोड़ रुपये की स्कॉलरशिप दिलाई है। वह सिर्फ बच्चों की ही सहायता नहीं करते, बल्कि कई शिक्षण संस्थानों को विभागीय अनुदान हासिल करने में भी उन्होंने मदद की है।
इस निस्वार्थ सेवा ने जहां बच्चों में उन्हें ‘स्कॉलरशिप मास्टर’ के रूप में लोकप्रिय बना दिया, तो वहीं इलाके में एक सुधारक की उनकी पहचान बना दी। नाइक की शख्सियत कितनी प्रेरणादायी है, इसका अंदाजा इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिन दिहाड़ी मजदूरों के बच्चों की उन्होंने कभी मदद की थी, उनमें से कुछ ने मिलकर सात लाख रुपये की लागत से एक विधवा के लिए घर बनवाया है। एक शिक्षक कभी रिटायर नहीं होता, इस सूत्रवाक्य को के नारायण नाइक ने अक्षरश सही साबित किया है।
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