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जो अपनी प्रिय भाषा में ही फेल हो गया

 मानो शर्म और दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा। स्कूल के हेडमास्टर साहब का बेटा ही प्रवेश परीक्षा में ढेर हो गया। घर में ही खूब किताबें थीं। सभी छोटे-बड़े पढ़ने में लगे रहते थे, पढ़ाई का बढ़िया माहौल था, लेकिन तब भी नाकामी मिल गई।

जैसे कोई कामयाबी अंतिम नहीं होती, उसी तरह कोई नाकामी भी आखिरी नहीं होती। नाकामी एक पड़ाव ही तो है और उसके आगे कामयाबी की ओर बढ़ जाना ही जीवन। गिरकर भी उठकर बढ़ते रहने वाले ही गगन चूमते हैं और एक बार हारकर ठहरने वाले सोचते रह जाते हैं। बढ़ने वालों को भांति-भांति की खुशियां बुलाती हैं और ठहरने वालों को दुख घेरते चले आते हैं। मतलब, महत्व गिरने, हारने का नहीं, बढ़ते चलने का है।

उस नवयुवा की भी कुल कहानी यह है कि हम जिंदगी को इम्तिहान में डालते रहते हैं और जिंदगी भी इम्तिहान लेती रहती है। युवा ने इंटरमीडिएट में प्रवेश के लिए परीक्षा दी थी, लेकिन वह अंग्रेजी भाषा में ही फेल हो गया। अब तो मानो शर्म और दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा। स्कूल के हेडमास्टर साहब का बेटा ही प्रवेश परीक्षा में ढेर हो गया। स्कूल में भी खूब किताबें थीं और घर में भी पिता के पुस्तकालय में किताबें भरी पड़ी थीं, घर के सभी छोटे-बड़े पढ़ने में लगे रहते थे, पढ़ाई का बढ़िया माहौल था, लेकिन तब भी नाकामी मिल गई। यह ऐसी नाकामी थी, जिससे एक साल बर्बाद होना तय था। पिता से नजरें मिलना दुश्वार हो गया था, अंग्रेजी उतनी खराब भी नहीं थी कि फेल का दाग लग जाता, लेकिन लगना था, लग गया। वह युवा सोच में पड़ गया, निराशा ने बुरी तरह घेर लिया। इस नाकामी ने अंतर्मुखी स्वभाव का विस्तार कर दिया, लेकिन उसने यह तय किया कि हार नहीं मानना है, हार मानकर किसी दूसरी दिशा में नहीं बढ़ना है। जिस प्रतिष्ठित संस्थान में पढ़ने की तमन्ना है, वहीं पढ़ना है। जरूरी नहीं कि एक ठोकर पर दिशा बदल दी जाए। मन मानकर दिशा बदलना हार न सही, समझौता तो है ही, जिंदगी भर यह अफसोस रह जाएगा कि जहां पढ़ने का सपना था, वहां पढ़ न सके। तो ऐसे में सही यही है कि प्रवेश परीक्षा में फिर बैठा जाए और जो कमजोरी है, उसे सोलह आना दूर कर लिया जाए। माना कि स्कूल बार-बार बदला, शहर भी बदला, इससे पढ़ने का स्थिर माहौल न मिला, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि ऐसे फेल होकर लोगों को बोलने का मौका दिया जाए। अगली बार जब सफलता मिल जाएगी, तो यही लोग बोलेंगे, हां, एक बार फेल हो गया था, पर बाद में बेहतर अंकों से पास हो गया।

अंग्रेजी में मिली एक हार ने निराश तो जरूर किया, लेकिन मन को हरा न सकी। युवा ने वापस पढ़ाई में पूरा मन लगा दिया। वह घर के पास स्थित झील की ओर रोज नियम से निकल जाता, साथ में कोई न कोई अंग्रेजी की किताब होती थी, कभी शेक्सपियर, तो कभी चार्ल्स डिकंस, कभी जॉर्ज एलियट, तो कभी जॉन मिल्टन, पढ़ने का सिलसिला चल पड़ा। अंग्रेजी रगों में बहने लगी, दिमाग में बसने लगी, विद्वता इस मुकाम पर पहुंच गई कि अब आओ, सवाल जहां से पूछना हो, पूछ लो। किताब-दर-किताब पढ़ाई ने अवसाद से तो बचाया ही, रोज नए अनुभवों, नई दुनिया से रूबरू भी कराया और मन ही मन में यह तय हो गया कि आगे लेखक ही बनना है और कुछ नहीं।

पढ़ाई से आगे का जीवन बहुत आसान लगने लगा, साथ ही, बहुत पढ़ने ने कुछ लिखने को भी प्रेरित किया। कॉलेज पहुंचते ही कुछ-कुछ लिखना शुरू हो गया। 1930 में स्नातक होने के बाद उन्हें शिक्षक की नौकरी मिल गई, जो महज चार दिनी सेवा के साथ संपन्न हुई और वह ठान बैठे कि लेखक ही बनना है।

आज से 92 वर्ष पहले सितंबर का ही महीना चल रहा था, साल था 1930, उन्होंने एक कॉपी खोली और कुछ पल प्रेरणा की प्रतीक्षा के बाद पहली पक्ति लिखी, ‘वह सोमवार की सुबह थी,’ तभी उन्हें अपने मन की आंखों से एक रेलवे स्टेशन दिखने लगा, जिसका नाम था मालगुड़ी। कथाओं से सराबोर तरह-तरह के नायकों, पात्रों का भरा-पूरा शहर। उसी मालगुड़ी शहर में स्वामी और उनके मित्र दिखे, तो एक अद्भुत पुस्तक तैयार हुई, स्वामी ऐंड फ्रेंड्स । इसी पुस्तक के जरिये दुनिया ने उन्हें एक बेहतरीन लेखक आर के नारायण (1906-2001) के रूप में पहचाना। एक से बढ़कर एक अंग्रेजी उपन्यासों और कहानियों की रचना करने वाले आर के नारायण देश के पहले ऐसे अंग्रेजी लेखक थे, जिनके लिए लेखन पूर्णकालिक कार्य था। उनकी किताबों, कहानियों पर अनेक धारावाहिक बने और फिल्में भी। फेल होने के बाद की कड़ी पढ़ाई कदम-कदम पर काम आई। एक नाकामी लंबी कामयाबी में बदल गई। लेखन के पहले वर्ष में दस रुपये भी जेब में नहीं आए थे, लेकिन एक दिन वह भी आया, जब हर साल लेखन से ही लाखों रुपये बरसे। देश की आजादी के बाद कभी अमेरिका, तो कभी यूरोप बुलाए जाने वाले अंग्रेजी के महान लेखक को पढ़ने के बाद आज कोई विश्वास नहीं करता है कि वह कभी अंग्रेजी में फेल हो गए थे।

प्रस्तुति ज्ञानेश उपाध्याय

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