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एक महानायक खोजता समाज

 एक महानायक खोजता समाज

भारतीय समाज हमेशा से नायक की तलाश करता रहा है। आज भी ढूंढ़ रहा है। अभी जो राजनीतिक दल सत्ता में है, उसने भारतीय समाज के इस चरित्र के दोहन के लिए दो तरीके अपनाए। एक, उसने जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी की छवि धूमिल करने का लगातार उपक्रम किया और उसके बाद राहुल गांधी को ‘पप्पू’ के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। दूसरा, नरेंद्र मोदी को ऐसे नेता के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया, जो देश को विश्वगुरु बना देंगे। कोई भी राजनीतिक दल या नेता फिलहाल समाज के इस चरित्र के आगे खड़े होने का साहस नहीं रखता। एक देश और एक समाज के रूप में भारत के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। ऐसा नहीं है कि देश में बढ़ती अराजकता, हिंसा का बनता माहौल, बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई को लेकर लोगों में बेचैनी नहीं है, लेकिन उनकी यह तकलीफ जिस तरह से पिछली सरकार के विरोध में रूपांतरित हुई थी, उस प्रकार से मौजूदा सत्ता के खिलाफ नहीं हो रही। आखिर क्यों? इसके लिए हमें समाज के नायकपरस्त चरित्र की पड़ताल करनी होगी। आज आम भारतीय के मन में प्रधानमंत्री हर संस्था से ऊपर हैं। उनमें ऐसी अलौकिक शक्तियां हैं, जो देश को किसी जादू जैसा बना देंगे, जैसा औपनिवेशिक काल में ब्रिटेन हुआ करता था, जिसका समूची दुनिया में डंका बजता था। इसके लिए एक शब्द गढ़ा गया है ‘विश्वगुरु’। लोगों को लगता है कि यही व्यक्ति एक संभावना है, जो हमारे विश्वगुरु बनने के हसीन सपने को पूरा कर सकता है। यह सपना किसी भी नशे से कहीं ज्यादा नशीला है। इससे बाहर आना आसान नहीं है। समाज को इस नशे से कोई बाहर ला सकता है, तो यह संभावना सिर्फ राहुल गांधी में है। भारतीय समाज शायद कभी वस्तुनिष्ठ होकर विचार करे और परिस्थितियां बेहतर हों, लेकिन फिलहाल इसकी संभावना बहुत क्षीण है। फिर भी, राहुल गांधी का अहिंसात्मक और सहज-सरल राजनीति के प्रति विश्वास कई लोगों को हौसला तो देता ही है।

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