उत्तर प्रदेश महज भारत के 28 राज्यों में एक है, लेकिन यह करीब 23 करोड़ लोगों का घर है, और यदि यह एक स्वतंत्र राष्ट्र होता, तो आबादी के लिहाज से दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश होता। हाल के दिनों में यहां की शासन-व्यवस्था बेशक सुधरी है, पर आजादी से पहले और बाद के कुछ दशकों के कुप्रबंधन ने इस बड़ी और बढ़ती हुई आबादी को भारत के गरीबों में शुमार कर दिया है। यह प्रति व्यक्ति आय के मामले में पूर्वी पड़ोसी राज्य बिहार को छोड़कर देश के तमाम सूबों में सबसे पीछे है। इस सूरतेहाल में उत्तर प्रदेश सरकार का ‘मिशन वन ट्रिलियन’ संभावनाओं को हकीकत में बदलने का एक अवसर है। राज्य की अर्थव्यवस्था को अगले पांच वर्षों में एक ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाना इस पहल का मकसद है, जो संभव भी है।
आखिर यह आर्थिक विकास होगा कैसे? पिछले 75 वर्षों में, कोई भी कम आय वाला देश निर्यात पर अपनी निर्भरता अधिकाधिक बढ़ाए बिना तेज तरक्की नहीं कर सका है। जापान, ताइवान, दक्षिण कोरिया से लेकर चीन तक की सफलता इसकी तस्दीक करती है। यहां तक कि पिछले तीन दशकों में भारत ने जो विकास किया है, उसमें भी निर्यात का बड़ा हाथ है। इससे संपन्न और बड़े बाजारों से पूंजी आती है। भारत के लिए यह इसलिए भी अहम है, क्योंकि प्रति व्यक्ति आंकड़ों में हम आज भी मध्यम व उच्च आय वाले देशों की तुलना में गरीब हैं। अगर यहां की औसत आय ज्यादा होती, तो भारतीय उद्योग के लिए यह तुलनात्मक रूप से एक बड़ा बाजार होता। इतना ही नहीं, निर्यात इस बात का भी संकेतक है कि हमारा संस्थागत व औद्योगिक ढांचा वैश्विक बाजार में मुकाबला करने लायक है।
हम निर्यात प्रदर्शन और विकास को प्रतियोगी परीक्षाओं की तरह देख सकते हैं। परीक्षाएं अपने आप में हमारी समझ को बेहतर नहीं बनातीं, बल्कि हमें इसके लिए तैयारी करनी पड़ती है। हमें अपनी क्षमता के अनुरूप विषयों का चुनाव करना पड़ता है, और उन पर मेहनत करनी होती है। ये परीक्षाएं इसी बात का पैमाना होती हैं कि हम अपनी तैयारी में सफल हुए अथवा नहीं। निर्यात प्रदर्शन भी यही बताता है कि क्या हमारी तैयारी (बुनियादी उत्पादों की पसंद और स्थानीय व्यापार में सुगमता लाने से लेकर उद्यमिता व बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता तक) पर्याप्त है, और हम अपने निर्यात लक्ष्यों में सफल रहे हैं?
इसमें उत्तर प्रदेश को भला कैसे सफलता मिल सकती है? यहां सबसे जरूरी उन क्षेत्रों का चयन है, जिसमें यह राज्य क्षमतावान है। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश की प्रमुख ताकत उसके लोग हैं। उसके पास एक बड़ा श्रम-बल है, और श्रम के लिहाज से वह उन देशों से प्रतिस्पर्द्धा कर सकता है, जहां श्रम-प्रधान उद्योग काफी सफल रहे हैं। समय के साथ समृद्ध होने वाले प्रत्येक निम्न-आय वाले देशों ने अपनी यात्रा की शुरुआत में इस ताकत का लाभ उठाया है। इसके लिए श्रम प्रधान उद्योगों के निवेश की राह आसान बनाई गई और बड़े-बड़े उद्योगों के विकास व संचालन के लिए नियामक, प्रशासनिक और बुनियादी ढांचे सुधारे गए। मगर अपने यहां मैन्युफैक्चरिंग के लिए नियामक वातावरण का अभाव रहा है। भारत में श्रम प्रधान उद्योगों से जुड़ी किसी भी बहस में फैक्टरी चलाने संबंधी मुश्किलों की चर्चा सामान्य है। लालफीताशाही से लेकर स्थानीय राजनीतिक मसले तक तमाम समस्याएं हमारे सामने हैं। यहां चीन व बांग्लादेश का उदाहरण ले सकते हैं, जहां फैक्टरी के लिए भूमि आवंटन, बुनियादी ढांचे तक पहुंच या ढुलाई आदि की क्लीयरेंस जैसी स्थितियां सुगम बनाई गईं। जाहिर है, आर्थिक व निर्यात संबंधी सफलता को प्राथमिकता बनाने के साथ-साथ उत्तर प्रदेश को इन समस्याओं से पार पाने के लिए भी तत्परता दिखानी होगी।
अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मजबूत स्थिति में हैं और प्रदेश के तेज विकास के इच्छुक हैं। वह चाहें, तो पूरे सूबे की नियामक, प्रशासनिक और बुनियादी ढांचा संबंधी समस्याओं से निपटने के बजाय उन कुछ बड़े क्षेत्रों का चयन कर सकते हैं, जहां चीन, वियतनाम या बांग्लादेश जैसे प्रतिद्वंद्वी देशों के बरअक्स स्थितियां बेहतर बनाई जा सकती हैं। ऐसा करना उत्तर प्रदेश ही नहीं, भारत के लिए भी बेहतर होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं
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