कॉन्फिडेंस पर भारी पड़ा विजय देवरकोंडा का टशन, अनन्या पांडे फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी
Movie Review
लाइगर (हिंदी)
कलाकार
विजय देवरकोंडा , अनन्या पांडे , राम्या कृष्णन , विष , चंकी पांडे , माइक टायसन और मकरंद देशपांडे आदि
लेखक
पुरी जगन्नाथ और प्रशांत पांडे
निर्देशक
पुरी जगन्नाथ
निर्माता
धर्मा प्रोडक्शंस और पुरी कनेक्ट्स
रिलीज डेट
25 अगस्त 2022
रेटिंग
फिल्म ‘लाइगर’ की रिलीज से पहले इसके सितारों विजय देवरकोंडा और अनन्या पांडे ने पूरा हिंदुस्तान मथ डाला। पंजाब पहुंचे तो एक गाना ‘कोका कोका’ ऐसा रिलीज कर दिया, जिसकी पूरी फिल्म में कहीं जरूरत ही नहीं थी। लेकिन गाना बन गया तो इसे फिल्म के आखिर में चिपका दिया गया और गाना चूंकि पंजाबी में है तो अनन्या पांडे से क्लाइमेक्स में एक संवाद भी बोलने को कह दिया गया, ‘पंजाब दी कुश्ती’। ये फिल्म एक बात तो ये साबित करती है कि हिंदी फिल्मों की मार्केटिंग का ढर्रा बदलने का वक्त आ गया है। सितारे जब हर रोज टीवी पर, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर और न्यूज पोर्टल पर फ्री में ही दिखते रहेंगे तो पैसे खर्च करके उनकी फिल्म देखने भला कौन आएगा? जितनी भीड़ विजय देवरकोंडा को देखने उनके भारत दर्शन के दौरान उमड़ी, उसकी 10 फीसदी पब्लिक भी ‘लाइगर’ हिंदी को देखने पहले दिन सिनेमाघरों में नजर नहीं आई।
पुरी जगन्नाथ का नाम पहले पहल हिंदी सिनेमा के दर्शकों ने तब सुना, जब उनकी साल 2006 में रिलीज हुई फिल्म ‘पोकिरी’ को प्रभु देवा ने हिंदी सिनेमा में बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म ‘वांटेड’ के रूप में बनाया। फिल्म ने सलमान खान का पटरी से उतरा करियर संभाल लिया। इसके पहले पुरी अपनी पहली तेलुगू फिल्म ‘बदरी’ को हिंदी में ‘शर्त द चैलेंज’ के नाम से बना चुके थे। पुरी जगन्नाथ ने एक और फिल्म हिंदी में ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ के रूप में अमिताभ बच्चन के साथ में बनाई। ये दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर विफल रहीं और अब बारी ‘लाइगर’ की है। अपनी पहली अखिल भारतीय (पैन इंडिया) फिल्म में भी पुरी जगन्नाथ पूरी तरह विफल रहे हैं। ना उन्हें काशी की संस्कृति का भान है और ना ही मां-बेटे के रिश्ते का। सिर्फ बनारसी पान भंडार दिखाकर हिंदी दर्शकों की संवेदनाओं को संतुष्ट करने की उनकी कोशिश पूरी तरह विफल रही है। फिल्म एक तरह से देखा जाए तो मिथुन चक्रवर्ती की कल्ट फिल्म ‘बॉक्सर’ का रीमेक है।
बासी कढ़ी का उबाल
दक्षिण भारतीय सिनेमा को लेकर इधर हिंदी अखबारों और न्यूज पोर्टल्स पर खूब चर्चा है कि उसने हिंदी सिनेमा को पीछे छोड़ दिया है। लेकिन, हकीकत इससे कहीं अलग है। तेलुगू, तमिल और कन्नड़ की इक्का दुक्का फिल्मों को छोड़ दें तो हाल वहां भी हिंदी सिनेमा जैसा ही है। भारतीय सिनेमा इन दिनों एक तरह के संक्रमण काल से गुजर रहा है। नई और असल कहानियों का निर्माता, निर्देशकों के पास जबर्दस्त टोटा है। पुराने फार्मूले अब काम नहीं कर रहे। और, पुरी जगन्नाथ की ये फिल्म ‘लाइगर’ पूरी तरह से बासी हो चुके फॉर्मूलों से ही एक नई फिल्म पकाने की औसत से कमतर कोशिश है। फिल्म की कहानी, पटकथा, निर्देशक, संगीत और वातावरण सब पहले से देखा सुना सा लगता है। विजय देवरकोंडा के अभिनय और इस किरदार के लिए की गई उनकी मेहनत को छोड़ दें तो फिल्म में कुछ भी देखने लायक नहीं है।
दक्षिण भारतीय सिनेमा को लेकर इधर हिंदी अखबारों और न्यूज पोर्टल्स पर खूब चर्चा है कि उसने हिंदी सिनेमा को पीछे छोड़ दिया है। लेकिन, हकीकत इससे कहीं अलग है। तेलुगू, तमिल और कन्नड़ की इक्का दुक्का फिल्मों को छोड़ दें तो हाल वहां भी हिंदी सिनेमा जैसा ही है। भारतीय सिनेमा इन दिनों एक तरह के संक्रमण काल से गुजर रहा है। नई और असल कहानियों का निर्माता, निर्देशकों के पास जबर्दस्त टोटा है। पुराने फार्मूले अब काम नहीं कर रहे। और, पुरी जगन्नाथ की ये फिल्म ‘लाइगर’ पूरी तरह से बासी हो चुके फॉर्मूलों से ही एक नई फिल्म पकाने की औसत से कमतर कोशिश है। फिल्म की कहानी, पटकथा, निर्देशक, संगीत और वातावरण सब पहले से देखा सुना सा लगता है। विजय देवरकोंडा के अभिनय और इस किरदार के लिए की गई उनकी मेहनत को छोड़ दें तो फिल्म में कुछ भी देखने लायक नहीं है।
तुरुप का पत्ता शुरू में ही खोलने का मलाल
फिल्म ‘लाइगर’ कहने को एक अंडरडॉग की कहानी है। लेकिन, इसकी असल काबिलियत यानी कि दर्जनों लोगों से एक साथ भिड़ने की उसकी कूवत पुरी जगन्नाथ फिल्म की शुरुआत में ही दिखा देते हैं। इसके बाद उसकी हर फाइट बेअसर होती जाती है। फिल्म का तुरुप का पत्ता पहले ही खोल देने के बाद फिल्म का हर पत्ता दर्शकों को पहले से पता रहता है। कहानी मुंबई में चाय की दुकान चलाने वाले मां बेटे की है। मां ने बेटे को इसी उम्मीद के साथ पाला है कि जो खिताब उसका पति नहीं हासिल कर पाया, उसे एक दिन उसका बेटा हासिल करेगा। लेकिन, फिल्म के क्लाइमेक्स में बेटा ही इस किस्से को ‘फेक’ बता देता है। मिक्स मार्शल आर्ट्स की कोचिंग के पहले दिन कोच कहता है, ‘मुझे तुम्हारा कॉन्फिडेंस पसंद आया, लेकिन इसके पीछे जो टशन है, उसे थोड़ा कम करो।’ पुरी जगन्नाथ को यही काम फिल्म के साथ करने चाहिए था।
फिल्म ‘लाइगर’ कहने को एक अंडरडॉग की कहानी है। लेकिन, इसकी असल काबिलियत यानी कि दर्जनों लोगों से एक साथ भिड़ने की उसकी कूवत पुरी जगन्नाथ फिल्म की शुरुआत में ही दिखा देते हैं। इसके बाद उसकी हर फाइट बेअसर होती जाती है। फिल्म का तुरुप का पत्ता पहले ही खोल देने के बाद फिल्म का हर पत्ता दर्शकों को पहले से पता रहता है। कहानी मुंबई में चाय की दुकान चलाने वाले मां बेटे की है। मां ने बेटे को इसी उम्मीद के साथ पाला है कि जो खिताब उसका पति नहीं हासिल कर पाया, उसे एक दिन उसका बेटा हासिल करेगा। लेकिन, फिल्म के क्लाइमेक्स में बेटा ही इस किस्से को ‘फेक’ बता देता है। मिक्स मार्शल आर्ट्स की कोचिंग के पहले दिन कोच कहता है, ‘मुझे तुम्हारा कॉन्फिडेंस पसंद आया, लेकिन इसके पीछे जो टशन है, उसे थोड़ा कम करो।’ पुरी जगन्नाथ को यही काम फिल्म के साथ करने चाहिए था।
सहानुभूति बटोरने का बिखरा सा सवाल
लड़ना, भिड़ना और जीतना एक इंसानी जज्बा है। इस जज्बे की कद्र जब भी कहानी में कायदे से की जाती है। फिल्म हिट होती है। फिल्म के निर्माता करण जौहर ने अपने पिता यश जौहर को याद करते हुए अपने पिछले इंटरव्यू में मुझसे कहा था, ‘ए हिट फिल्म इज ए गुड फिल्म’। और, ‘लाइगर’ एक गुड फिल्म नहीं है। ये दर्शकों के धैर्य का इम्तिहान लेती फिल्म है। कहानी ठीक से बघारी भी नहीं गई होती है कि पुरी जगन्नाथ इसमें गानों का तड़का लगाना शुरू कर देते हैं। फिल्म यहीं से लंगड़ी हो जाती है। हीरो के लिए दर्शकों की सहानुभूति जुटाने को वह उसे हकला भी बनाते हैं लेकिन यहां उसकी हकलाहट नकली लगती है। हकलाहट के मनोविज्ञान को ढंग से समझ कर उसे फिल्म के नायक का हथियार भी बनाया जा सकता था और इस हकलाहट की वजह अगर अतीत की कोई घटना होती तो मामला बेहतर जम सकता था।

लड़ना, भिड़ना और जीतना एक इंसानी जज्बा है। इस जज्बे की कद्र जब भी कहानी में कायदे से की जाती है। फिल्म हिट होती है। फिल्म के निर्माता करण जौहर ने अपने पिता यश जौहर को याद करते हुए अपने पिछले इंटरव्यू में मुझसे कहा था, ‘ए हिट फिल्म इज ए गुड फिल्म’। और, ‘लाइगर’ एक गुड फिल्म नहीं है। ये दर्शकों के धैर्य का इम्तिहान लेती फिल्म है। कहानी ठीक से बघारी भी नहीं गई होती है कि पुरी जगन्नाथ इसमें गानों का तड़का लगाना शुरू कर देते हैं। फिल्म यहीं से लंगड़ी हो जाती है। हीरो के लिए दर्शकों की सहानुभूति जुटाने को वह उसे हकला भी बनाते हैं लेकिन यहां उसकी हकलाहट नकली लगती है। हकलाहट के मनोविज्ञान को ढंग से समझ कर उसे फिल्म के नायक का हथियार भी बनाया जा सकता था और इस हकलाहट की वजह अगर अतीत की कोई घटना होती तो मामला बेहतर जम सकता था।
भारी पड़ा जरूरत से ज्यादा अपनों का ख्याल
बतौर लेखक विफल रहने के साथ साथ पुरी जगन्नाथ फिल्म ‘लाइगर’ में बतौर निर्देशक भी पूरी तरह विफल रहे हैं। अपनी कंपनी के सीईओ विषु रेड्डी यानी विष को उन्होंने बतौर विलेन हिंदी सिनेमा में पेश किया है। माइक टायसन भी क्लाइमेक्स में आते हैं और इसे खराब करने के सिवा कुछ नहीं करते हैं। करण जौहर की खासमखास अनन्या पांडे फिल्म की हीरोइन हैं। अपनों को ही चमकाते रहने की इस आदत से फिल्मकारों को अब बाज आने की जरूरत है। न तो विष इस फिल्म का कुछ मूल्यवर्धन करते हैं और न अनन्या पांडे। अनन्या पांडे देखा जाए तो फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं। अभिनय उनसे होता नहीं है और जब भी वह परदे पर आती हैं, दर्शकों को उकताहट सी होने लगती है। रूप, लावण्य और सौंदर्य में भी वह सिनेमा की हीरोइन सी नहीं जंचतीं। उनकी विजय देवरकोंडा के साथ रची गई प्रेम कहानी में भी मोहब्बत का कहीं कोई रंग नहीं दिखता। सब कुछ बहुत नकली सा दिखता है।
नहीं चला ‘अर्जुन रेड्डी’ का कमाल
अपनी ही फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ को अपनी शोहरत का एहसान न मानने वाले विजय देवरकोंडा यहां ‘टशन’ के शिकार अभिनेता दिखते हैं। फिल्म की हिंदी रीमेक ‘कबीर सिंह’ का जिक्र भी फिल्म में आता है। विजय की की देहयष्टि और उनकी शख्सियत फिल्म में आकर्षक लगती है लेकिन उनका अभिनय एक महत्वाकांक्षी मां के बेटे जैसा नहीं लगता। मेहनत उनकी काबिले तारीफ है लेकिन इस मेहनत का जो नतीजा परदे पर दिखना चाहिए था, उस पर विजय का ये ‘टशन’ ही पानी फेरता है। उनकी मां बनी राम्या कृष्णन अब भी ‘बाहुबली’ के हैंगओवर में हैं। आंखें निकालकर संवाद बोलना या फिर कमर झुकाकर कैमरे के सामने चीखना, हर बार दर्शकों को प्रभावित नहीं कर सकता है। काशी की पृष्ठभूमि की कोई मां अपने बेटे को किसी भी हालत में ‘साले’ तो नहीं ही बोलती है। एक मजबूत मां, एक सुंदर सी प्रेमिका और आवारगी में भटकता नायक, हिंदी सिनेमा का यश चोपड़ा से लेकर मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा तक की फिल्मों का हिट फॉर्मूला रहा है। पुरी जगन्नाथ ने इस फॉर्मूले को भी तार तार कर दिया।
बतौर लेखक विफल रहने के साथ साथ पुरी जगन्नाथ फिल्म ‘लाइगर’ में बतौर निर्देशक भी पूरी तरह विफल रहे हैं। अपनी कंपनी के सीईओ विषु रेड्डी यानी विष को उन्होंने बतौर विलेन हिंदी सिनेमा में पेश किया है। माइक टायसन भी क्लाइमेक्स में आते हैं और इसे खराब करने के सिवा कुछ नहीं करते हैं। करण जौहर की खासमखास अनन्या पांडे फिल्म की हीरोइन हैं। अपनों को ही चमकाते रहने की इस आदत से फिल्मकारों को अब बाज आने की जरूरत है। न तो विष इस फिल्म का कुछ मूल्यवर्धन करते हैं और न अनन्या पांडे। अनन्या पांडे देखा जाए तो फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं। अभिनय उनसे होता नहीं है और जब भी वह परदे पर आती हैं, दर्शकों को उकताहट सी होने लगती है। रूप, लावण्य और सौंदर्य में भी वह सिनेमा की हीरोइन सी नहीं जंचतीं। उनकी विजय देवरकोंडा के साथ रची गई प्रेम कहानी में भी मोहब्बत का कहीं कोई रंग नहीं दिखता। सब कुछ बहुत नकली सा दिखता है।
अपनी ही फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ को अपनी शोहरत का एहसान न मानने वाले विजय देवरकोंडा यहां ‘टशन’ के शिकार अभिनेता दिखते हैं। फिल्म की हिंदी रीमेक ‘कबीर सिंह’ का जिक्र भी फिल्म में आता है। विजय की की देहयष्टि और उनकी शख्सियत फिल्म में आकर्षक लगती है लेकिन उनका अभिनय एक महत्वाकांक्षी मां के बेटे जैसा नहीं लगता। मेहनत उनकी काबिले तारीफ है लेकिन इस मेहनत का जो नतीजा परदे पर दिखना चाहिए था, उस पर विजय का ये ‘टशन’ ही पानी फेरता है। उनकी मां बनी राम्या कृष्णन अब भी ‘बाहुबली’ के हैंगओवर में हैं। आंखें निकालकर संवाद बोलना या फिर कमर झुकाकर कैमरे के सामने चीखना, हर बार दर्शकों को प्रभावित नहीं कर सकता है। काशी की पृष्ठभूमि की कोई मां अपने बेटे को किसी भी हालत में ‘साले’ तो नहीं ही बोलती है। एक मजबूत मां, एक सुंदर सी प्रेमिका और आवारगी में भटकता नायक, हिंदी सिनेमा का यश चोपड़ा से लेकर मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा तक की फिल्मों का हिट फॉर्मूला रहा है। पुरी जगन्नाथ ने इस फॉर्मूले को भी तार तार कर दिया।

देखें कि न देखें
तकनीकी रूप से भी फिल्म ‘लाइगर’ एक कमजोर फिल्म है। फिल्म के हिंदी में लिखे संवाद दोयम दर्जे के हैं और हिंदी दर्शकों की भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं। विष्णु शर्मा ने सिनेमैटोग्राफी में इन दिनों के विश्व सिनेमा के सारे पैंतरे आजमाए हैं लेकिन नए दौर का कैमरा कैसे काम करता है, ये देखना हो तो नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘कार्टर’ देखनी चाहिए। दर्शक को कहानी का हिस्सा बना देना ही कैमरे की असली कला है, लेकिन ‘लाइगर’ यहां भी मात खाती है। संपादन फिल्म का बहुत खराब है। जुनैद सिद्दीकी को समझ ही नहीं आता कि कोई सीन कहां खत्म कर देना है। लगातार फ्लॉप होती हिंदी फिल्मों के दौर में फिल्म ‘लाइगर’ से दर्शकों को काफी उम्मीदें रही हैं, लेकिन मामला जमा नहीं।
तकनीकी रूप से भी फिल्म ‘लाइगर’ एक कमजोर फिल्म है। फिल्म के हिंदी में लिखे संवाद दोयम दर्जे के हैं और हिंदी दर्शकों की भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं। विष्णु शर्मा ने सिनेमैटोग्राफी में इन दिनों के विश्व सिनेमा के सारे पैंतरे आजमाए हैं लेकिन नए दौर का कैमरा कैसे काम करता है, ये देखना हो तो नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘कार्टर’ देखनी चाहिए। दर्शक को कहानी का हिस्सा बना देना ही कैमरे की असली कला है, लेकिन ‘लाइगर’ यहां भी मात खाती है। संपादन फिल्म का बहुत खराब है। जुनैद सिद्दीकी को समझ ही नहीं आता कि कोई सीन कहां खत्म कर देना है। लगातार फ्लॉप होती हिंदी फिल्मों के दौर में फिल्म ‘लाइगर’ से दर्शकों को काफी उम्मीदें रही हैं, लेकिन मामला जमा नहीं।
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