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भारतीय सामाजिक व्यवस्था के 5 आधार

 भारतीय सामाजिक व्यवस्था वह स्थिति या अवस्था हैं जिसमें सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाले विभिन्न अंग या इकाइयां सांस्कृतिक व्यवस्था के अंतर्गत निर्धारित पास्परिक प्रकार्यात्मक संबंध के आधार पर सम्बध्द समग्रता की ऐसी सन्तुलित स्थिति उत्पन्न करते हैं जिससे मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति संभव होती है।



भारतीय सामाजिक व्यवस्था

भारतीय सामाजिक व्यवस्था के संरचनात्मक आधारों को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए यहां व्यवहार के जिन सिद्धान्तों को विकसित किया गया, उन वैचारिक आधारों को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है—

  1. पंच ऋण तथा यज्ञ
  2. पुरुषार्थ
  3. कर्म तथा पुनर्जन्म
  4. संस्कार
  5. धर्म

1. पंच ऋण तथा यज्ञ

हमारे समाज में व्यक्तिवादिता के दोषों को दूर करने के लिए यह बताया गया है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अनेक चर और अचर तत्वों का ऋणी है। इस आधार पर व्यक्ति के ऊपर पांच प्रकार के ऋण होते E-(1) देवऋण (2) ऋषि-ऋण (3) पितृ-ऋण, (4) अतिथि-ऋण, और (5) जीव-ऋण सर्वप्रथम व्यक्ति , की अहंवादी विचारधारा पर अंकुश रखने के लिए यह बताया गया है कि वह देवताओं का ऋणी है, क्योंकि जल, भूमि, वायु और अन्य बहुमूल्य पदार्थों के द्वारा देवताओं अथवा अलौकिक शक्तियों ने ही हमें जन्म दिया है।

हम देवताओं के इसलिए भी ऋणी है कि वे अनेक प्रकार के प्राकृतिक पदार्थों की सुविधा देकर हमारा पालन-पोषण करते हैं। व्यक्ति पर दूसरा ऋण, ऋषि ऋण है, क्योंकि ऋषियों की साधना, ज्ञान और तप के कारण ही व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है। इसी ज्ञान की सहायता से वह अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। तीसरा पितृ ऋण है। पितृ-ऋण का अर्थ माता और पिता दोनों के ऋण से है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।

माता-पिता हमें जन्म तो देते ही हैं, साथ ही बिना किसी स्वार्थ के हमारे पालन-पोषण, शिक्षा और समाजीकरण की भी व्यवस्था करते हैं। असहाय अवस्था में व्यक्ति की सहायता करने के लिए चौथे ऋण अर्थात् अतिथि ऋण का आदर्श सामने रखा गया था। इस ऋण के महत्व को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को उपनयन संस्कार (जनेऊ धारण करना) के समय भिक्षा मांगने का काम पूरा करना होता था। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।

यह इसका सांकेतिक महत्व था। अन्त में, जीव-ॠण के द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया कि हमारा जीवन हमसे पहले ही उत्पन्न हो जाने वाली अनेक वनस्पतियों तथा छोटे-छोटे जीवों का भी ऋणी है, क्योंकि इन्ही की सहायता से हम जीवित रहते हैं और शक्ति का संचय करते हैं। कुछ विद्वानों ने ‘ऋण-त्रय’ के रूप में ऋणों की संख्या तीन भी बताई है, लेकिन व्यक्ति के कर्तव्यों की व्यापकता को देखते हुए यह संख्या पांच ही उचित प्रतीत होती है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।

व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि यह अपने आपको इन ऋणों से मुक्त करे भारतीय संस्कृति में इन ऋणों से मुक्त होने के प्रयत्न को ही ‘यज्ञ’ कहा गया है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि बिना किसी इश के केवल कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर किया जाने वाला कार्य ही यज्ञ है। इस प्रकार, ये यज्ञ भी पांच प्रकार के होते हैं-

  1. देव-यज्ञ
  2. ऋषि-यज्ञ
  3. पितृ-यज्ञ
  4. अतिथि-यज्ञ
  5. जीव-यज्ञ

देव-यज्ञ का तात्पर्य उन कार्यों से हैं, जिनको करके हम देवताओं के ऋण से उऋण होते हैं। इस आधार पर ईश्वर की उपासना, आराधना और सब कुछ उसी का समझना व्यक्ति का प्रमुख कर्तव्य है। यह यज्ञ व्यक्ति को अहंकार से बचाता है। ऋषि-यज्ञ के रूप में हमारा प्रमुख कार्य ज्ञान में वृद्धि करना, उसे सुरक्षित रखना तथा अपने ज्ञान से दूसरे व्यक्ति को लाभ पहुंचाना है। माता-पिता के ऋण से उऋण होने के लिए पितृ-यज्ञ का आदर्श सामने रखा गया।

इसके अनुसार, माता-पिता की सेवा करना और मृत्यु के बाद उनके श्राद्ध तथा तर्पण की व्यवस्था करना व्यक्ति का कर्तव्य है, जिससे उनका सम्मान तथा स्मृति सदैव बनी रहे। साथ ही पितृ यज्ञ का अर्थ यह भी है कि जिस प्रकार माता-पिता ने हमें जन्म दिया, उसी प्रकार हम भी विवाह के द्वारा सन्तान को जन्म देकर उसके पालन-पोषण का भार अपने ऊपर लें।

अतिथि-यज्ञ के अनुसार, व्यक्ति को समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करना और प्रत्येक परिस्थिति में सामान्य कल्याण को महत्व देना मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है । अन्त में, जीव-यज्ञ के अन्तर्गत वनस्पति की रक्षा करना, पशुओं को भोजन देना और छोटे-छोटे जीवों के प्रति उदारता बनाए रखना व्यक्ति के प्रमुख कर्तव्य माने गए हैं। इस प्रकार इन सभी यज्ञों का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वार्थ के . प्रभाव को कम करना तथा समूह कल्याण में वृद्धि करना रहा है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।

2. पुरुषार्थ

शाब्दिक रूप से पुरुषार्थ का अर्थ ‘उद्योग करना’ अथवा परिश्रम करना है, लेकिन भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में स्पष्ट किया गया, जो व्यवस्थित रूप से व्यक्ति को उसके सभी प्रमुख कर्तव्यों का बोध करा सके। पुरुषार्थ के अन्तर्गत व्यक्ति के सभी कर्तव्यों को चार प्रमुख भागों में वांट दिया गया। इस प्रकार पुरुषार्थ चार माने गए हैं—

  1. धर्म
  2. अर्थ
  3. काम
  4. मोक्ष

इन सभी पुरुषार्थों में ‘मोक्ष’ व्यक्ति का सबसे प्रमुख तथा अन्तिम लक्ष्य है और इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को धर्म, अर्थ और काम से सम्बन्धित दायित्वों को पूरा करना आवश्यक है। व्यावहारिक रूप से ये सभी पुरुषार्थ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, क्योंकि एक के बिना दूसरे को प्राप्त नहीं किया जा सकता। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।

धर्म का अर्थ ईश्वर की सत्ता में विकास करना यज्ञों को पूरा करना और विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न व्यक्तियों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करना है अर्थ का तात्पर्य है, मेहनत और ईमानदारी से आर्थिक क्रियाओं को करना अथवा जीविका उपार्जन के साधनों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना। आर्थिक क्रियाओं को करने से ही परिवार का भरण-पोषण सम्भव है और इसी के द्वारा व्यक्ति अतिथियों तथा साधारण जीवों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकता है।

काम का तात्पर्य व्यभिचार से नहीं है, बल्कि एक धार्मिक और सामाजिक दायित्व के रूप में सन्तान को जन्म देने से है। व्यक्ति यदि धर्म और अर्थ में ही लगा रहे, ‘काम’ से बिल्कुल अलग रहे, तब पितृ ऋण से उऋण नहीं हो सकता। इसलिए काम को भी व्यक्ति का एक प्रमुख कर्तव्य माना गया। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सभी क्षेत्रों में व्यक्ति के कर्तव्यों और उसके लक्ष्यों के बीच सन्तुलन बनाए रखने में पुरुषार्थ की व्यवस्था ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था hindibag पर पढ़ रहे हैं।



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