वह साहित्य जो क्रान्तिकारियों की गीता है
वह क्रान्तिकारी लेख.. जिसे पढ़ते ही युवा ह्रदय स्वतन्त्रता के लिए उद्वलित हो उठे
((स्वतन्त्रता समर में कूद पड़े))
वह विचार जिसने लंदन से लेकर भारत तक ब्रिटिश सरकार की नींद उड़ा दी
वह पुस्तक जो छपने से पूर्व ही प्रतिबन्धित हो गई..
इस अद्भुत विचारवान क्रान्तिकारी पुस्तक के लेखक हैं- विनायक दामोदर सावरकर..
एक ऐसा व्यक्तित्व.. जिससे अंग्रेजी सत्ता को डर सता रहा था..
ऐसे प्रखर वक्ता.. जिनके भाषण सुनकर देश-विदेशों में क्रान्तिकारी जन्म ले रहे थे..
महान क्रान्तिकारियों के प्रणेता.. जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने 2-2 बार आजीवन
कारावास की सजा सुनाई। परन्तु उनके विचार लगातार अंग्रेजी सत्ता को चुनौती देते
रहे।
सबसे पहले पूर्ण स्वतन्त्रता की बात करने वाले वीर सावरकर का जन्म 28 मई
1883 को नासिक के भागुर नामक ग्राम में हुआ था।
विनायक दामोदर सावरकर
जन्म: 28 मई 1883
स्थान: ग्राम भागुर, नासिक, महाराष्ट्र))
उनके पिता का नाम दामोदर तथा माता का नाम राधा था।
विनायक असाधारण व्यक्तित्व वाले बालक थे.. बचपन से उन्हें पुस्तकें और समाचार पत्र पढ़ना पसन्द था। विनायक जब 8 वर्ष के थे, तभी से कविताएं लिखने लगे थे।
उनके पिता रात्रि में उन्हें शास्त्रों का पाठ भी कराते थे।
उनका क्रान्तिकारी ह्रदय समाजिक एकता और समरसता के लिए तड़प उठता।
वे जब उच्च शिक्षा ग्रहण करने लंदन गए.. तो वहां उनकी भेंट इण्डिया हाउस के
प्रबन्धक मुखर्जी महोदय से हुई. यहीं से उन्हें 1857 के स्वतन्त्रता समर की सच्चाई
लोगों तक पहुंचाने की प्रेरणा मिली।
मुखर्जी महोदय की सहायता से लंदन की प्रतिष्ठित लाइब्रेरी में उपलब्ध गोपनीय रिपोर्ट्स उन्हें पढ़ने का अवसर मिला।
इस कार्य को करते हुए उन्होंने तात्या टोपे, महारानी लक्ष्मी बाई समेत कई
क्रान्तिकारियों के अदम्य साहस की छवि देखी, तो उनका ह्रदय क्रूर अंग्रेजी सत्ता के
प्रति घृणा से भर उठा।
सन् 1907 का वह समय जब 1857 के समर के 50 साल पूर्ण रहे थे.. तत्कालीन
ब्रिटिश समाचार पत्र अंग्रेजी सेना के साहस की मनगढ़ंत कहानियों से भरे पड़े थे।
भारतियों की बहुत बड़ी क्रान्ति को कुचल देने की कहानियां गढ़ी जा रही थीं। नगर
में जगह-जगह जश्न मनाया जा रहा था।
जिसे देखकर सावरकर और उसके साथियों का लहू खौल उठा। और उन्होंने प्रतिज्ञा
ली- ''हमारे पूर्वजों के द्वारा बहाए गए रक्त के एक-एक कतरे का हम बदला लेंगे।
स्वतन्त्रता संग्राम को प्रारम्भ उन्होंने किया था और इसका अन्त हम करेंगे।'' (इस
चंक का मेल वॉइस ओवर करा सकते हैं)
विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 के बलिदानों की याद में मेडल्स बनाएं जिन्हें
युवाओं ने अपने सीने पर धारण किया तथा अनेक स्थानों पर वंदे मातरम लिखा
गया।
वीर सावरकर ने जब 1857 के स्वातंत्र्य समर का गम्भीरता से अध्ययन किया तो
पाया कि ये मात्र सैनिक विद्रोह नहीं, अपितु भारतीय स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम
था।
क्रांतिकारी विनायक की इस सक्रियता को देखते हुए लाइब्रेरी में उनकी सदस्यता को रद्द कर दिया गया परंतु विनायक तब तक आवश्यक शोध कार्य कर चुके थे।
अपने शोध कार्य पर आधारित उन्होंने ''1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर'' ग्रन्थ की रचना की, जो आज भी भारत के स्वाधीनता संग्राम का मूल ग्रन्थ माना जाता है।
इस ग्रन्थ ने भारतीयों की सोई हुई राष्ट्रीय चेतना को फिर से जगा दिया और 1857 की चिंगारी फिर से युवा हृदय में शोला बनकर धधकने लगी।
अंग्रेजों को यह पुस्तक अपने लिए इतनी घातक लग रही थी कि भारत के गवर्नर जनरल ने पुस्तक को छपने से पूर्व भी उस पर प्रतिबंध लगा दिया और उसे भारत में लाए जाने पर रोक लगा दी गई।
विनायक के साथियों ने गुपचुप तरीके से पुस्तक की कुछ प्रतियां भारत में भिजवाई।
मैडम भीकाजी कामा ने पुस्तक के प्रकाशन में मदद की।
कुछ दशकों के पश्चात महान क्रान्तिकारी भगत सिंह ने भी पुस्तक के चतुर्थ संस्करण को भारत में गुपचुप तरीके से प्रकाशित करवाया।
क्रान्तिकारी विनायक दामोदर सावरकर ने भगत सिंह, लाला हरदयाल, सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, मदनलाल ढींगरा जैसे अनेक क्रान्तिकारियों को प्रेरित किया।
वर्ष 1940 में रासबिहारी बोस और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी इस पुस्तक का जापान में प्रकाशन कराया।
यह पुस्तक क्रान्तिकारियों के बीच गीता के नाम से प्रचलित हो गई, जो भी इस पुस्तक को पढ़ लेता मातृभूमि के लिए मर-मिटने को तैयार हो जाता।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भी अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह की प्रेरणा वीर सावरकर के ग्रन्थ से ही मिली थी, उन्होंने अपनी सैनिक टुकड़ी का नाम रानी झांसी के नाम पर रखा था।
क्रान्ति के अग्रदूत, (हस्तसिद्ध लेखक) क्रान्तिकारियों की गीता के रचयिता और प्रखर हिन्दू राष्ट्रवादी विनायत दामोदर वीर सावरकर की जयन्ती पर उन्हें शत्-शत् नमन।
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