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मूल्यपरक शिक्षा की अवधारणा का वर्णन


भारत में शिक्षा स्तर समस्या एवं मुद्दे 

BHAARAT-MEIN-SHIKSHA-STAR-SAMASYA-EVAM-MUDDE

Que : 12. मूल्यपरक शिक्षा की अवधारणा का वर्णन कीजिए।

Answer:     मूल्यपरक शिक्षा की अवधारणा :

 मूल्यपरक शिक्षा की अवधारणा अपेक्षाकृत आधुनिक तथा व्यापक है। परम्परागत रूप से प्रचलित धार्मिक शिक्षा एवं नैतिक शिक्षा आदि से यह भिन्न भी है। यह 'अमुक कार्य करें' एवं 'अमुक कार्य मत करो' की व्याख्या नहीं है। यह वह आस्था अथवा विश्वास है कि कुछ कार्य निश्चित रूप से निरपेक्षतः अच्छे हैं तथा कुछ कार्य पूर्णतः अथवा निरपेक्षतः बुरे हैं। इसमें कार्यों के पीछे निहित सद्गुणों पर बल दिया जाता है। यह औचित्य के लिए शिक्षा' है।

 

प्रायः मूल्यपरक शिक्षा से तात्पर्य उस शिक्षा से है, जिसमें हमारे नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य समाहित हैं। इसमें विभिन्न विषयों को मूल्य परक बनाकर उनके माध्यम से विभिन्न मूल्यों को छात्रों के व्यक्तित्व में समाहित करने पर बल दिया जाता है, जिससे उनका सन्तुलित तथा सर्वतोन्मुखी विकास हो सके।

 

मूल्य शिक्षा के निम्नलिखित दो अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है, यथा -

 

(1) मूल्यों की शिक्षा,

(2) मूल्य समाहित या मूल्यपरक शिक्षा।

1. मूल्यों की शिक्षा- मूल्यों की शिक्षा के अन्तर्गत हम नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों आदि की शिक्षा इतिहास, भूगोल, गणित, रसायनशास्त्र और भौतिकशास्त्र आदि विषयों की शिक्षा की भाँति एक स्वतंत्र विषय के रूप में देना चाहते हैं।

 

2. मूल्यपरक शिक्षा- मूल्यपरक शिक्षा में सभी विषयों में मनोवैज्ञानिक ढंग से मूल्य समाहित करके निर्धारित मूल्यों के विकास पर बल दिया जाता है। इस शिक्षा में एकीकृत उपागम पर बल दिया जाता है। आज के भारतीय सन्दर्भ में 'Value Education' को दूसरे अर्थ में स्वीकार किया जाना चाहिए।

 

मूल्यपरक शिक्षा की विषय-वस्तु :

 

मूल्यपरक शिक्षा में समाहित मूल्यों अथवा विषय-वस्तु को निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है -

 

1. शास्त्रीय मूल्य- शिक्षण में नियमितता तथा निष्ठा,मूल्यांकन में निष्पक्षता, अनुसन्धान तथा प्रकाशन में ईमानदारी और सत्यनिष्ठा, स्वस्थ प्रतियोगिता तथा वस्तुनिष्ठता एवं सृजनशीलता आदि आते हैं।

 

2. नैतिक मूल्य- सच्चाई, सत्यनिष्ठा, उत्तरदायित्व की भावना एवं दूसरों के प्रति दया भाव आदि नैतिक मूल्य की विशेषता हैं।

 

3. सामाजिक-राजनैतिक मूल्य- राष्ट्रीय एकता तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना, सामाजिक दायित्व तथा नागरिकता, लोकतंत्र तथा मानवतावाद आदि सामाजिक-राजनैतिक मूल्य हैं।

 

4. वैज्ञानिक स्वभाव मूल्य- वस्तुनिष्ठता, विवेक, तथ्याधारित खोज-उपागम, सृजनात्मक चिन्तन, जिज्ञासा एवं समस्या-समाधान-उपागम आदि वैज्ञानिक मूल्य हैं।

 

5. संवैधानिक मूल्य- आर्थिक तथा सामाजिक न्याय और राजनैतिक समानता, भ्रातृत्व, एकता एवं धर्मनिरपेक्षता आदि संवैधानिक मूल्य हैं।

 

6. वैश्विक मूल्य- वैश्विक शान्ति, सभी के लिए स्वतंत्रता तथा न्याय, पूर्ण निःशस्त्रीकरण एवं सभी तरह की दासता की समाप्ति ही वैश्विक मूल्य हैं।

 

7. पर्यावरणीय मूल्य- प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण एवं पर्यावरण सजगता आदि पर्यावरणीय मूल्य कहलाते हैं।

 

8. सांस्कृतिक मूल्य- सांस्कृतिक एकता दूसरी संस्कृतियों को सम्मान एवं संस्कृति की सुरक्षा आदि सांस्कृतिक मूल्यों की श्रेणी में आते हैं।

 

उक्त मूल्य तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान परिषद द्वारा निर्धारित तिरासी (83) मूल्यों को निम्न : समूहों में वर्गीकृत किया गया है। उक्त मूल्य तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान परिषद द्वारा निर्धारित मूल्यों को मूल्यपरक शिक्षा में विशेष स्थान दिया जाना चाहिए-

 

1. साधुता अथवा न्यायप्रियता- स्वच्छता, सत्यनिष्ठा, समाज-कल्याण, सहयोग, साहस, अनुशासन, धैर्य, मित्रता, स्वामी-भक्ति, शिष्टाचार, न्याय, आज्ञापालन, समय का सदुपयोग, पवित्रता, ज्ञान-पिपासा, सादा-जीवन, स्व-सहायता, स्वाध्याय, आत्म-निर्भरता, आत्म-विश्वास, आत्म-सम्मान, सहानुभूति, सत्य तथा असत्य एवं अच्छाई एवं बुराई में भेद करने की भावना, सहिष्णुता और सच्चाई आदि।

 

2. स्वानुशासन- आत्म-नियंत्रण, समयबद्धता, नियमितता, ईमानदारी, भक्ति अथवा निष्ठा, सत्यनिष्ठा, पहलकदमी, शुभचिन्ता, साधन-सम्पन्नता, जिज्ञासा, खोज-प्रवृत्ति एवं भावी दृष्टिकोण आदि।

 

3. मित्र-भाव- सहायता, दूसरों को सम्मान तथा आदर, टीम भावना से कार्य, टीम भावना एवं दूसरों का हित चिन्तन आदि।

 

4. मानवतावाद- व्यक्ति की गरिमा, शारीरिक श्रम को आदर, सौजन्यता, समाज-सेवा, मानवता की सुदृढ़ता, सामाजिक दायित्व की भावना, खोज-प्रवृत्ति एवं सम भावना आदि।

 

5. लोकतन्त्रीय भावना- नागरिकता, समानता, स्वतंत्रता, नेतृत्व, राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय-सजगता, देशभक्ति, सामाजिक न्याय, समाजवाद, राष्ट्रीय एवं नागरिक सम्पत्ति का महत्त्व तथा लोकतान्त्रिक निर्णय आदि।

 

6. अहिंसा- सांस्कृतिक मूल्यों की सुरक्षा, छुआछूत की समाप्ति, जीवों पर दया, धर्मनिरपेक्षता एवं समस्त धर्मों का सम्मान, सार्वभौमिक मूल्यों में निष्ठा, सत्य, प्रेम, सुन्दर और शिव।

 

 

मूल्यपरक शिक्षा के मार्गदर्शक सिद्धान्त :

 

मूल्यपरक शिक्षा के सन्दर्भ में निम्न मार्गदर्शक सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए -

 

(1) मूल्यपरक शिक्षा धार्मिक शिक्षा से भिन्न है। इसलिए इसमें धर्म विशेष पर बलनहीं दिया जाना चाहिए।

 

(2) इसको स्वतन्त्र विषय के रूप में पाठ्यक्रम में स्थान प्रदाय नहीं किया जाना चाहिए। विभिन्न विषयों में इसके लिए मूल्यों को समाहित किया जाय।

 

(3) संविधान में निर्देशित मूल्य तथा सामाजिक उत्तरदायित्व मूल्यपरक शिक्षा के केन्द्र बिन्दु होने चाहिए।

 

(4) मूल्यपरक शिक्षा को समाज की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में क्रियान्वित किया जाना चाहिए।

 

(5) मूल्यपरक शिक्षा के कार्यक्रमों की सफलता घर, विद्यालय के आदर्श वातावरण एवं शिक्षक के आधार पर होनी चाहिए।

 

मूल्यपरक शिक्षा के उद्देश्य :

 

विद्यालय स्तर की शिक्षा में मूल्यपरक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिए -

 

(1) छात्रों में सहयोग, प्रेम तथा करुणा, शान्ति और अहिंसा, साहस, समानता, बन्धूत्व श्रम-गरिमा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं विभेदीकरण की शक्ति आदि मौलिक गुणों का विकास करना।

 

(2) छात्रों को एक उत्तरदायी नागरिक बनने हेतु प्रशिक्षित करना।

 

(3) राष्ट्रीय लक्ष्मी- समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं लोकतन्त्र का सही ढंग से बोध करना।

 

(4) देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के संबंध में उन्हें जागरूक बनाना। साथ ही उनमें वांछित सुधार लाने हेतु प्रोत्साहित करना।

 

(5) निम्नलिखित के प्रति उनमें समुचित दृष्टिकोण विकसित करना

 

() स्वयं तथा अपने साथियों के प्रति।

 

() स्वदेश के प्रति।

 

() मानवता के प्रति।

 

() सभी धर्मों तथा विभिन्न संस्कृतियों के प्रति।

 

() जीवन शैली तथा पर्यावरण के प्रति।

 

(6) छात्रों को स्वयं को जानने हेतु प्रोत्साहित करना, जिससे वे स्वयं में आस्था रखने में समर्थ हो सकें।

 

 

मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता :

 

भारत अपनी कला, संस्कृति एवं दर्शन आदि की गौरवशाली परम्पराओं पर हमेशा गर्व करता रहा है, लेकिन आज अनास्था एवं पारम्परिक अविश्वास के वातावरण में हमारी प्राचीन परम्परा तथा मूल्य धूमिल से हो गये हैं। आधुनिकता की भ्रामक अवधारणा, अस्तित्वादी जीवन, अनात्मपरक नास्तिकता, पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण एवं कुतर्क प्रधान चिन्तन आदि के कारण अतीत में अविश्वास तथा 'स्व' में अनास्था आदि कारणों से हमारे पुराने मूल्य प्रदूषित हो गये हैं। स्वयं पर अनास्था का परिणाम है- आत्मनाश अर्थात् अपने आदर्शों तथा मूल्यों, अपनी सांस्कृतिक विरासत, अपनी चिन्तन प्रणाली का परित्याग कर उसके स्थान पर बाहरी अथवा विदेशी चिन्तन प्रणाली को शामिल करना। इसके कारण हमारे मूल्य दब से गये हैं। वस्तुत: वे पूर्णत: नष्ट नहीं हुए हैं, बल्कि विघटित हो गये हैं। मानव नारी का सम्मान करना चाहता है लेकिन कर नहीं पाता है। वह झूठ, चोरी, डकैती आदि को गलत मानता है पर छोड़ नहीं पाता है। वह परपीड़न को पाप तथा परोपकर को पुण्य स्वीकारता तो है लेकिन मन में उतार नहीं पाता। वह समाज के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्ट्राचार के प्रति आक्रोश प्रकट करता है लेकिन भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं कर पाता। इस तरह आज का प्रत्येक भारतीय संक्रांति काल से होकर गुजर रहा है। दूसरे शब्दों में, कभी वह पुरातन मूल्यों की तरफ झुकता है तो कभी आधुनिकता की भ्रामक अवधारणा की तरफ जाता है, फिर रुककर आत्म चिन्तन करता है।

 

उक्त वातावरण ने मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता की तरफ सभी का ध्यान आकृष्ट कर लिया है। हमने संक्रमण काल में कर्त्तव्य अथवा कार्य संस्कृति के स्थान पर उपभोक्ता संस्कृति को अपना लिया है। इस उपभोक्ता संस्कृति ने मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता को और भी प्रबल बना दिया है।

 


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