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हमारी संस्कृति हमारा नया साल

राष्ट्रीय और भारत की संस्कृति के स्वरूप को परिभाषित किया है । व्याख्या - भूमि और जन के पश्चात् लेखक राष्ट्र के तीसरे अंग संस्कृति का वर्णन करते हुए कहता है कि मानव सभ्यता का ही दूसरा नाम संस्कृति है और इसका निर्माण मनुष्य द्वारा अनेक युगो की दीर्घावधि में किया गया है । यह उनके जीवन का उसी प्रकार से अभिन्न और अनिवार्य अंग है , जिस प्रकार से जीवन के लिए श्वास - प्रश्वास अनिवार्य है । वस्तुतः संस्कृति मनुष्य का मस्तिष्क है और मनुष्य के जीवन में मस्तिष्क सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है , क्योंकि मानव शरीर का संचालन और नियन्त्रण उसी से होता है । मस्तिष्क की मृत्यु होने पर व्यक्ति को मृत मान लिया जाता है , भले ही उसका सम्पूर्ण शरीर भली - भाँति कार्य कर रहा हो और जीवित हो जिस प्रकार से मस्तिष्क से रहित धड़ को व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है अर्थात् मस्तिष्क के बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती , उसी प्रकार संस्कृति के बिना भी मानव - जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है इसीलिए संस्कृति के विकास और उसकी उन्नति में ही किसी राष्ट्र का विकास , उन्नति , समृद्धि और वृद्धि निहित है । इस बात में कोई सन्देह नहीं कि राष्ट्र के सम्पूर्ण स्वरूप में संस्कृति का भी उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान है , जितना कि भूमि और जन का होता है । अर्थात् भूमि और जन के पश्चात् राष्ट्र का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व उसकी संस्कृति है किसी राष्ट्र के अस्तित्व में संस्कृति महत्त्व को इस बात से समझा जा सकता है कि यदि किसी राष्ट्र की भूमि और जन को संस्कृति से अलग कर दिया जाए तो एक समृद्धशाली राष्ट्र को मिटते हुए देर न लगेगी । संस्कृति और मनुष्य एक - दूसरे के पूरक होने के साथ - साथ एक - दूसरे के लिए अनिवार्य भी हैं । एक के न रहने पर दूसरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है । इसीलिए तो कहा जाता है कि जीवनरूपी वृक्ष का फूल ही संस्कृति है ; अर्थात् किसी समाज के ज्ञान और उस ज्ञान के आलोक में किए गए कर्तव्यों के सम्मिश्रण से जो जीवन - शैली उभरती है या सभ्यता विकसित होती है , वही संस्कृति है । समाज ने अपने ज्ञान के आधार पर जो नीति या जीवन का उद्देश्य निर्धारित किया है , उस उद्देश्य की दिशा में उसके द्वारा सम्पन्न किया गया उसका कर्त्तव्य ; उसके रहन - सहन , शिक्षा , सामाजिक व्यवस्था आदि प्रभावित करता है और इसे ही संस्कृति कहा जाता है । प्रत्येक राष्ट्र में अनेक जातियाँ रहती हैं । उन जातियों की अपनी - अपनी विशेषताएँ होती है । अपनी विशेषताओं के आधार पर ही प्रत्येक जाति अपनी सस्कृति का निर्धारण करती और उन विशेषताओं से प्रेरित होकर अपनी संस्कृति को विकसित करने का प्रयास करती है । परिणामस्वरूप विभिन्न जातियों की विभिन्न भावनाओं के कारण विभिन्न प्रकार की संस्कृतियाँ विकसित हो जाती है , किन्तु राष्ट्र की उन्नति के लिए उन विभिन्न संस्कृतियों के मूल में समन्वय , पारस्परिक सहनशीलला लथा सहयोग की भावना निहित रहती है । 

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