गरीबों का जीवन बदलने वाले प्रयोग
अधिकांश अर्थशास्त्री अपने काम के लिए प्रयोग आधारित दृष्टिकोण का पालन नहीं कर पाते, क्योंकि वास्तविक जीवन में प्रयोग करना काफी मुश्किल होता है, लेकिन अभिजीत बनर्जी और डुफ्लो के साथ ऐसा नहीं है। अर्थशास्त्र में उनके शोध प्रायोगिक दृष्टिकोण पर आधारित हैं। मोरक्को वाले उदहारण के आधार पर चीन में एक प्रयोग किया गया। इस प्रयोग की चर्चा बनर्जी ने उक्त साक्षात्कार में की थी। इसके बाद 2014 में मुंबई में हुए एक लिटरेचर फेस्टिवल में भी उन्होंने इसके बारे में काफी विस्तार से बताया। संयोग से मैं वहां मौजूद था। बनर्जी ने बताया कि हमने चीन में कुछ लोगों को सस्ते चावल खरीदने के लिए वाउचर दिए। हमारा अनुमान था कि इससे पोषण में सुधार होगा। चूंकि यह एक प्रयोग के रूप में किया गया था इसलिए कुछ लोगों को वाउचर दिए गए थे और कुछ को नहीं। इस प्रयोग का परिणाम उम्मीद से बहुत अलग निकला। आशा यह की जा रही थी कि लोगों का पोषण सुधरेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। बनर्जी ने बताया, वाउचर वाले लोग पोषण में बदतर निकले। दरअसल उन्हें लगा कि अब उनके पास वाउचर है सो वे पहले से ज्यादा अमीर हैं और अब उन्हें चावल खाने की जरूरत नहीं है। वे पोर्क, झींगा आदि खा सकते हैं। उन्होंने पोर्क और झींगा खरीदा और परिणामस्वरूप उनके शुद्ध कैलोरी ग्रहण में कमी हो गई। भले ही यह बात सुनने में थोड़ी अजीब लगे, पर बनर्जी इसे पूरी तरह तर्कसंगत मानते हैं। उनका कहना है कि वे लोग आनंद की प्रतीक्षा कर रहे थे। आनंद न केवल हमारे जीने के लिए, बल्कि हमारे भाग्य को नियंत्रित करने के संदर्भ में भी बहुत महत्वपूर्ण है। अगर किसी को लगता है कि उसे शेष जीवन दब्बू होकर जीना होगा तो इसका मतलब है कि उसका जीना बहुत मुश्किल हो गया है। बनर्जी के अनुसार, चीन के वे लोग अपने पोषण में सुधार कर सकते थे या अगले दस दिनों के लिए थोड़ा बेहतर खा सकते थे, लेकिन आनंद एक ऐसी चीज है जिसके बारे में हम भूल जाते हैं।
दुनिया भर के विभिन्न देशों ने भोजन के अधिकार को इसी विचार के साथ लागू किया है कि अगर गरीब लोगों को रियायती भोजन दिया जाएगा तो उनके पोषण में सुधार होगा। जब खाद्य सुरक्षा नीतियां तैयार की जाती हैं तो उन्हें तैयार करने वाले जीवन के आनंद के बारे में नहीं सोचते। वे यह मानकर चलते हैं कि अगर भोजन रियायती दरों पर उपलब्ध कराया जाएगा तो लोग स्वाभाविक रूप से पोषण के बारे में ही सोचेंगे, लेकिन ऐसा नहीं है। यह एक बहुत ही सरल, किंतु गहरी बात है जो किसी प्रयोग से ही बाहर आ सकती थी। यह प्रयोग बनर्जी और डुफ्लो ने किया। ऐसे ही प्रयोग उन्होंने शैक्षिक सुधार के क्षेत्र में भी किए और यह पाया कि भारत के सरकारी स्कूलों में शैक्षिक सुधार की काफी जरूरत है। ऊंची कक्षाओं के छात्र भी ठीक से पढ़-लिख नहीं पाते हैं। उन्हें बुनियादी गणित के सवाल हल करने में भी दिक्कत होती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सरकारी शिक्षकों के साथ एक प्रयोग किया।
बनर्जी दंपती ने शिक्षकों से कहा कि छह हफ्ते तक वे केवल छात्रों के बुनियादी कौशल पर ध्यान दें। यदि वे पढ़ नहीं सकते तो उन्हें पढ़ना सिखाएं। यदि वे गणित में दक्ष नहीं तो उन्हें गणित सिखाएं। इन शिक्षकों को थोड़ा वजीफा और साथ ही कुछ दिनों का प्रशिक्षण भी दिया गया। छह सप्ताह के इस प्रयोग से यह पता चला कि अगर एक अलग तरीके से पढ़ाया जाए तो बच्चों का भविष्य बदला जा सकता है। इस बारे में बनर्जी ने समझाया कि शिक्षकों को एक ऐसा काम करने के लिए कहा गया था जो वास्तव में उन्हें समझ में आता है। उन्हें बच्चों को वह सिखाने के लिए कहा गया जो बच्चे नहीं जानते थे। आम तौर पर शिक्षकों को पाठ्यक्रम पढ़ाने के लिए कहा जाता है।
शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत हर साल शिक्षकों को पाठ्यक्रम पूरा करना पड़ता है। बच्चे कुछ समझ रहे है या नहीं, इसकी उन्हें चिंता नहीं होती। जरा कक्षा चार में पढ़ने वाले उन बच्चों के बारे में सोचिए जो पढ़ नहीं सकते, लेकिन वे सामाजिक अध्ययन और अन्य सभी चीजें सीख रहे होते हैं। वे किसी विदेशी भाषा में कुछ फिल्में भी देखते हैं। बनर्जी के अनुसार, दरअसल वे कुछ नहीं सीख रहे होते हैं और इसीलिए ड्रॉपआउट दर अधिक हैं। शिक्षा की समस्या का एक सरल समाधान है। बनर्जी का कहना है, पहले चार वर्षो में हमें बुनियादी कौशल सिखाने को प्राथमिकता देनी चाहिए। देश के इतिहास से परिचित कराने का काम बाद में भी हो सकता है। बनर्जी के अनुसार, हम यह भूल जाते हैं कि पूर्णता अच्छे की दुश्मन है। हम एक ऐसी शिक्षा प्रणाली की कोशिश कर रहे हैं, जो एकदम सही हो और हर बच्चा इसके अंत में ज्ञान के साथ सामने आए। इस कोशिश के कारण वे कुछ नहीं सीख पाते। ऐसे प्रयोगों से काफी लोगों का फायदा हुआ है। नोबेल पुरस्कार संबंधी प्रेस विज्ञप्ति में कहा भी गया है कि महज एक अध्ययन के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में पचास लाख से अधिक भारतीय बच्चों को स्कूलों में ट्यूशन के प्रभावी कार्यक्रमों से लाभ हुआ है। यह बहुत बड़ी बात है।
(स्तंभकार अर्थशास्त्री एवं इजी मनी ट्राइलॉजी के लेखक हैं)
वास्तविक जीवन में प्रयोग करना काफी मुश्किल होता है, लेकिन अभिजीत बनर्जी और डुफ्लो के साथ ऐसा नहीं है, उनके शोध प्रायोगिक दृष्टिकोण पर आधारित हैं
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